रफेल को लेकर हर रोज़ एक कागज़ लहराने, छपने और उसके ठुस्स हो जाने का दौर बीते काफी वक्त से चला आ रहा है। लेकिन रफेल देश की सुरक्षा से जुड़ा एक बहुत अहम मुद्दा है और इसलिए आपको तमाम आरोपों और उनकी सच्चाई को करीब से समझना चाहिए।
1. आरोप– रफेल डील के ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट का सारा का सारा पैसा यानि 30 हजार करोड़ रुपए अनिल अंबानी की कंपनी को दे दिया गया।
सच्चाई– रफेल डील करीब 58 हजार करोड़ रुपए की है। इसलिए ऑफसेट उसका 50 फीसदी यानि करीब 29 हजार करोड़ रुपए है ना कि 30 हजार करोड़ रुपए। इसमें भी रफेल को अकेले दसॉ एविएशन नहीं बल्कि चार कंपनियां मिलकर तैयार कर रही हैं।
दसॉ कंपनी- इन्टीग्रेटर है,
थेल्स कंपनी- रडार और एविऑनिक्स बना रही है
साफरान कंपनी- इंजन और इलेक्ट्रॉनिक्स बनाएगी
और
MBDA नाम की कंपनी सारे हथियार तैयार करेगी।
और क्योंकि चार कंपनिया हैं इसलिए ऑफसेट निवेश की जिम्मेदारी भी इन चार में बंटी है। अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस दरअसल दसॉ की ऑफसेट पार्टनर है और उसकी हिस्सेदारी सिर्फ 10 प्रतिशत है। इसलिए रिलायंस के हिस्से आनेवाला निवेश करीब 800 से 850 करोड़ होगा, न कि 30 हजार करोड़ जैसा कि राहुल गांधी रोज़ दावा करते हैं।
2.आरोप– मोदी सरकार ने DPP 2013 यानि डिफेन्स प्रोक्योरमेंट प्रोसिजर 2013 को पूरी तरह फॉलो नहीं किया जो बेहद जरुरी था।
सच्चाई– DPP 2013 रक्षा सौदों के लिए तैयार की गई गाइडलाइन्स हैं जो यूपीए सरकार के वक्त बनीं। इसी के क्लॉज़ 71 और 72 में साफ लिखा है कि अगर सौदा मित्र देश से हो रहा हो तो DPP के नियमों को पूरी तरह से मानना जरुरी नहीं औऱ उसमें फेर बदल संभव। इसलिए मोदी सरकार की तरफ से डील को तेज़ी से पूरा करने के लिए किए बदलाव नियमों की अनदेखी नहीं। ऐसा यूपीए के जमाने में भी हुआ।
3. आरोप– पहली बार किसी रक्षा सौदे से इंटिग्रिटी क्लॉज़ हटाया गया और भ्रष्टाचारियों का साथ दिया मोदी सरकार ने।
सच्चाई– इससे पहले भी यूपीए सरकार के जमाने में रुस और अमेरिका के साथ हुए इंटर गवर्नमेंटल अग्रीमेंट में इंटिग्रिटी क्लॉज़ हटाए गए। ये पहली बार नहीं है। चूंकि सौदा दो देशों की देखरेख में होता है तो मित्र देश के आग्रह पर ऐसा पहले भी हुआ है।
4. आरोप– कोई बैंक गारंटी नहीं लेकर देश को नुकसान पहुंचाया गया।
सच्चाई– इंटर गवर्नमेंटल डील्स में चूंकि दो देश शामिल होते हैं इसलिए पहले भी बैंक गारंटी की बजाए लेटर ऑफ कम्फर्ट का सहारा लिया गया है जहां मित्र मुल्क इस बात की गारंटी लेता है कि कुछ भी गलत होने की स्थिति में वो जिम्मेदारी संभालेगा औऱ भारत का साथ देते हुए न्याय दिलवाएगा। ऐसा ही लेटर ऑफ कम्फर्ट फ्रांस के प्रधानमंत्री की तरफ से भारत को दिया गया है।
5. आरोप– एक चिट्ठी में ये दावा है कि अनिल अंबानी को पहले से पता था कि रफेल पर पीएम के फ्रांस दौरे के दौरान MoU साइन होने वाला है।
सच्चाई– भारत और फ्रांस का 2015 का साझा बयान ये साफ कहता है कि दोनों देशों के बीच प्रधानमंत्री के फ्रांस दौरे के दौरान रफेल को लेकर कोई MoU साइन ही नहीं हुआ था। सिर्फ एक सहमति बनी थी कि फ्रांस भारत की मदद करेगा 36 रफेल सस्ती कीमत पर और जल्द से जल्द दिलाने में। डील या एग्रीमेंट तो करीब डेढ़ साल बाद 2016 में जाकर भारत में साइन हुआ।
6. आरोप– रफेल की पेमेंट के लिए कोई साझा अकाउंट बनाया नहीं गया। पैसा सीधे दसॉ को दिया गया।
सच्चाई– फ्रांस के नेशनल बैंक में फ्रांस की सरकार ने ट्रेज़री अकाउंट बनाया है। रफेल सौदे से जुड़ा सारा पैसा पहले इस अकाउंट में जाता है। इस अकाउंट का नियंत्रण फ्रांस की सरकार के पास है। हर तिमाही में भारतीय वायुसेना के अधिकारी और फ्रांस के अधिकारियों की साझा बैठक होती है और उसमें रफेल सौदे में काम कितना आगे बढ़ा है इसकी समीक्षा होती है। जब दोनों तरफ के अधिकारी प्रोग्रेस से संतुष्ट होते हैं तब जाकर पेमेंट रिलीज़ की जाती है जो दसॉ औऱ MBDA को जाती है। कोई पेमेंट सीधे इन कंपनियों को होती ही नहीं।
सुप्रीम कोर्ट रफेल सौदे पर सरकार को क्लीन चिट दे चुकी। सीएजी की रिपोर्ट में अगर अनियमितताएं सामने आएं तो सवाल जरुर पूछे जाने चाहिए सरकार से लेकिन तब तक ये बात याद रखिए कि ये सियासत का वो दौर है जहां सिर्फ कुर्सी दिखती है, मुल्क नहीं। इसलिए नेता जो चाहे कह सकते हैं लेकिन आपको सच जानना चाहिए और हर शब्द को तौलना चाहिए। और ऐसे नेताओं औऱ उनके ‘सहयोगियों’ से देशहित से जु़ड़े ऐसे मुद्दों पर दूर से ही ‘राम’-‘राम’ कर लेना चाहिए।